गीता प्रेस, गोरखपुर >> अमूल्य शिक्षा अमूल्य शिक्षाजयदयाल गोयन्दका
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प्रस्तुत पुस्तक में अमूल्य शिक्षा का वर्णन ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अमूल्य शिक्षा
अपने आत्मा के समान सब जगह सुख-दुख को समान देखना तथा सब जगह आत्मा को
परमेश्वर में एकीभाव से प्रत्यक्ष की भाँति देखना बहुत ऊँचा ज्ञान है।
चिन्तन मात्र का अभाव करते–करते अभाव करने वाली वृत्ति भी शान्त हो जाय, कोई भी स्फुरणा शेष न रहे तथा एक अर्थमात्र वस्तु ही शेष रह जाय, यह समाधि का लक्षण है।
श्रीनारायण देव के प्रेम में ऐसी निमग्रता हो कि शरीर और संसार की सुधि ही न रहे, यह बहुत ऊँची भक्ति है।
नेति-नेति के अभ्यास से ‘नेति-नेति’ रूप निषेध करने वाले संस्कार की भी शान्त आत्मा में या परमात्मा में शान्त हो जाने के समान ध्यान की ऊँची स्थिति और क्या होगी ?
परमेश्वर का हर समय स्मरण न करना और उसका गुणानुवाद सुनने के लिये समय न मिलना बहुत बड़े शोक का विषय है।
मनुष्य में दोष देखकर उससे घृणा या द्वेष नहीं करना चाहिये। घृणा या द्वेष करना हो तो मनुष्य के अंदर रहने वाले दोषरूपी विकारों से करना चाहिये। जैसे किसी मनुष्य के प्लेग हो जाने पर उसके घरवाले प्लेग के भय से उसके पास जाना नहीं चाहते, परन्तु उसको प्लेग की बीमारी से बचाना अवश्य चाहते हैं, इसके लिये अपने को बचाते हुए यथासाध्य चेष्टा भी पूरी तरह से करते हैं, क्योंकि वह उनका प्यारा है। इसी प्रकार जिस मनुष्य में चोरी, जारी आदि दोषरूपी रोग हों, उसको अपना प्यारा बन्धु समझकर उसके साथ घृणा या द्वेष न कर उसके रोग से बचते हुए उसे रोगमुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिये।
भगवान् बड़े ही सुहृद् और दयालु हैं, वह बिना ही कारण हित करने वाले और अपने प्रेमी को प्राणों के समान प्रिय समझने वाले हैं। जो मनुष्य इस तत्त्व को जान जाता है, उसको भगवान् के दर्शन बिना एक पल के लिये भी कल नहीं पड़ती। भगवान् भी अपने भक्त के लिये सब कुछ छोड सकते हैं, पर उस प्रेमी भक्त को एक क्षण भी नहीं त्याग सकते।
मृत्यु को हर समय याद रखना और समस्त सांसारिक पदार्थों को तथा शरीर को क्षणभंगुर समझना चाहिये। साथ ही भगवान् के नाम का जप और ध्यान का बहुत तेज अभ्यास करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह परिणाम में परम आन्नद को प्राप्त होता है।
मनु्ष्य-जन्म सिर्फ पेट भरने के लिये ही नहीं मिला है। कीट, पतंग, कुत्ते, सु्अर और गदहे भी पेट भरने के लिये चेष्टा करते रहते हैं। यदि उन्हीं की भाँति जन्म बिताया तो मनुष्य-जीवन व्यर्थ है। जिनकी शरीर और संसार अर्थात् क्षणभंगुर नाशवान् जड़वर्ग में सत्ता नहीं है वही जीवनन्मुक्त हैं, उन्हीं का मनुष्य-जन्म सफल है।
जो समय भगद्वभजन के बिना जाता है वह व्यर्थ जाता है। जो मनुष्य समय की कीमत समझता है, वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खो सकता। भजन से अतः करण की शुद्धि होती है, तब शरीर और संसार में वासना और आसाक्ति दूर होती है, उसके बाद संसार की सत्ता मिट जाती है। एक परमात्मसत्ता ही रह जाती है।
संसार स्वप्नवत् है। मृगतृष्णा के जल के समान है, इस प्रकार समझकर उसमें आसक्ति के अभाव का नाम वैराग्य है। वैराग्य के बिना संसार से मन नहीं हटता और इससे मन हटे बिना उसका परमात्मा में लगना बहुत ही कठिन है, अतएव संसार की स्थिति पर विचारकर इसके असली स्वरूप को समझना और वैराग्य बढ़ाना चाहिये।
भगवान् हर जगह हाजिर हैं; परन्तु अपनी माया से छिपे हुए हैं। बिना भजन के न तो कोई उनको जान सकता है और न विश्वास कर सकता है। भजन से हृदय के स्वच्छ होने पर ही भगवान् की पहचान होती है। भगवान प्रत्यक्ष हैं, परन्तु लोग उन्हें माया के पर्दे के कारण नहीं देख पाते।
शरीर से प्रेम हटाना चाहिये। एक दिन तो इस शरीर को छोड़ना ही पड़ेगा, फिर इसमें प्रेम करके मोह में पड़ना कोई बुद्धिमानी नहीं है। समय बीत रहा है, बीता हुआ समय फिर नहीं मिलता, इससे एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाकर शरीर तथा शरीर के भोगों से प्रेम हटाकर परमेश्वर में प्रेम करना चाहिये ।
जब निरन्तर भजन होने लगेगा, तब आप ही निरन्तर ध्यान होगा। भजन ध्यान का आधार है। अतएव भजन को खूब बढ़ाना चाहिये। भजन के सिवा संसार में उद्वार का और कोई सरल उपाय नहीं है। भजन को बहुत ही कीमती चीज समझना चाहिये। जबतक मनुष्य भजन को बहुत दामी नहीं समझता, तब तक उससे निरन्तर भजन होना कठिन है। रुपये, भोग, शरीर और जो कुछ भी हैं, भगवान का भजन इन सभी से अत्यन्त उत्तम है। यह दृढ धारणा होने से ही निरन्तर भजन हो सकता है।
चिन्तन मात्र का अभाव करते–करते अभाव करने वाली वृत्ति भी शान्त हो जाय, कोई भी स्फुरणा शेष न रहे तथा एक अर्थमात्र वस्तु ही शेष रह जाय, यह समाधि का लक्षण है।
श्रीनारायण देव के प्रेम में ऐसी निमग्रता हो कि शरीर और संसार की सुधि ही न रहे, यह बहुत ऊँची भक्ति है।
नेति-नेति के अभ्यास से ‘नेति-नेति’ रूप निषेध करने वाले संस्कार की भी शान्त आत्मा में या परमात्मा में शान्त हो जाने के समान ध्यान की ऊँची स्थिति और क्या होगी ?
परमेश्वर का हर समय स्मरण न करना और उसका गुणानुवाद सुनने के लिये समय न मिलना बहुत बड़े शोक का विषय है।
मनुष्य में दोष देखकर उससे घृणा या द्वेष नहीं करना चाहिये। घृणा या द्वेष करना हो तो मनुष्य के अंदर रहने वाले दोषरूपी विकारों से करना चाहिये। जैसे किसी मनुष्य के प्लेग हो जाने पर उसके घरवाले प्लेग के भय से उसके पास जाना नहीं चाहते, परन्तु उसको प्लेग की बीमारी से बचाना अवश्य चाहते हैं, इसके लिये अपने को बचाते हुए यथासाध्य चेष्टा भी पूरी तरह से करते हैं, क्योंकि वह उनका प्यारा है। इसी प्रकार जिस मनुष्य में चोरी, जारी आदि दोषरूपी रोग हों, उसको अपना प्यारा बन्धु समझकर उसके साथ घृणा या द्वेष न कर उसके रोग से बचते हुए उसे रोगमुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिये।
भगवान् बड़े ही सुहृद् और दयालु हैं, वह बिना ही कारण हित करने वाले और अपने प्रेमी को प्राणों के समान प्रिय समझने वाले हैं। जो मनुष्य इस तत्त्व को जान जाता है, उसको भगवान् के दर्शन बिना एक पल के लिये भी कल नहीं पड़ती। भगवान् भी अपने भक्त के लिये सब कुछ छोड सकते हैं, पर उस प्रेमी भक्त को एक क्षण भी नहीं त्याग सकते।
मृत्यु को हर समय याद रखना और समस्त सांसारिक पदार्थों को तथा शरीर को क्षणभंगुर समझना चाहिये। साथ ही भगवान् के नाम का जप और ध्यान का बहुत तेज अभ्यास करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह परिणाम में परम आन्नद को प्राप्त होता है।
मनु्ष्य-जन्म सिर्फ पेट भरने के लिये ही नहीं मिला है। कीट, पतंग, कुत्ते, सु्अर और गदहे भी पेट भरने के लिये चेष्टा करते रहते हैं। यदि उन्हीं की भाँति जन्म बिताया तो मनुष्य-जीवन व्यर्थ है। जिनकी शरीर और संसार अर्थात् क्षणभंगुर नाशवान् जड़वर्ग में सत्ता नहीं है वही जीवनन्मुक्त हैं, उन्हीं का मनुष्य-जन्म सफल है।
जो समय भगद्वभजन के बिना जाता है वह व्यर्थ जाता है। जो मनुष्य समय की कीमत समझता है, वह एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खो सकता। भजन से अतः करण की शुद्धि होती है, तब शरीर और संसार में वासना और आसाक्ति दूर होती है, उसके बाद संसार की सत्ता मिट जाती है। एक परमात्मसत्ता ही रह जाती है।
संसार स्वप्नवत् है। मृगतृष्णा के जल के समान है, इस प्रकार समझकर उसमें आसक्ति के अभाव का नाम वैराग्य है। वैराग्य के बिना संसार से मन नहीं हटता और इससे मन हटे बिना उसका परमात्मा में लगना बहुत ही कठिन है, अतएव संसार की स्थिति पर विचारकर इसके असली स्वरूप को समझना और वैराग्य बढ़ाना चाहिये।
भगवान् हर जगह हाजिर हैं; परन्तु अपनी माया से छिपे हुए हैं। बिना भजन के न तो कोई उनको जान सकता है और न विश्वास कर सकता है। भजन से हृदय के स्वच्छ होने पर ही भगवान् की पहचान होती है। भगवान प्रत्यक्ष हैं, परन्तु लोग उन्हें माया के पर्दे के कारण नहीं देख पाते।
शरीर से प्रेम हटाना चाहिये। एक दिन तो इस शरीर को छोड़ना ही पड़ेगा, फिर इसमें प्रेम करके मोह में पड़ना कोई बुद्धिमानी नहीं है। समय बीत रहा है, बीता हुआ समय फिर नहीं मिलता, इससे एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाकर शरीर तथा शरीर के भोगों से प्रेम हटाकर परमेश्वर में प्रेम करना चाहिये ।
जब निरन्तर भजन होने लगेगा, तब आप ही निरन्तर ध्यान होगा। भजन ध्यान का आधार है। अतएव भजन को खूब बढ़ाना चाहिये। भजन के सिवा संसार में उद्वार का और कोई सरल उपाय नहीं है। भजन को बहुत ही कीमती चीज समझना चाहिये। जबतक मनुष्य भजन को बहुत दामी नहीं समझता, तब तक उससे निरन्तर भजन होना कठिन है। रुपये, भोग, शरीर और जो कुछ भी हैं, भगवान का भजन इन सभी से अत्यन्त उत्तम है। यह दृढ धारणा होने से ही निरन्तर भजन हो सकता है।
सर्वोंपयोगी प्रश्न
एक सज्जन ने कुछ उपयोगी प्रश्न किये हैं, यहाँ वे उत्तर सहित प्रकाशित
किये जाते हैं-
(1) प्र० सच्चा वैराग्य किस प्रकार हो ?
उ०–संसार के सम्पूर्ण पदार्थ क्षणभगुंर और नाशवान् होने के कारण दुःखप्रद और अनित्य हैं, इस रहस्य को सच्चे वैराग्यवान् पुरुषों के संग से समझने पर सच्चा वैराग्य हो सकता है।
(2) प्र०-ईश्वर-प्राप्ति पुरुषार्थ और भगवत्कृपा द्वारा होती है, वह पुरुषार्थ किस प्रकार किया जाय और भगवत्कृपा किस तरह समझी जाय ?
(3) उ० सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन भगवान् की सब प्रकार से शरण होना ही असली पुरुषार्थ है। अतएव भगवान् की शरण होने के लिये वैराग्य युक्त चित्त से तत्पर होना चाहिए। भगवान् के नामका जप, उनके स्वरूप का ध्यान, उनकी आज्ञा का पालन और सुख-दुखों की प्राप्ति के साधनों में एवं सुख-दुखों की प्राप्ति में उन परमात्मा की कृपा का पद-पद पर अनुभव करने का नाम शरण है। और उनकी शरण होने से ही उनकी कृपा का रहस्य समझ में आ सकता है।
(3) प्र० ईश्वर के दर्शन और प्राप्ति का सहज उपाय क्या है
(4) उ०-अनन्य-भक्ति ही सहज उपाय है। भगवान् ने कहा है-
(1) प्र० सच्चा वैराग्य किस प्रकार हो ?
उ०–संसार के सम्पूर्ण पदार्थ क्षणभगुंर और नाशवान् होने के कारण दुःखप्रद और अनित्य हैं, इस रहस्य को सच्चे वैराग्यवान् पुरुषों के संग से समझने पर सच्चा वैराग्य हो सकता है।
(2) प्र०-ईश्वर-प्राप्ति पुरुषार्थ और भगवत्कृपा द्वारा होती है, वह पुरुषार्थ किस प्रकार किया जाय और भगवत्कृपा किस तरह समझी जाय ?
(3) उ० सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन भगवान् की सब प्रकार से शरण होना ही असली पुरुषार्थ है। अतएव भगवान् की शरण होने के लिये वैराग्य युक्त चित्त से तत्पर होना चाहिए। भगवान् के नामका जप, उनके स्वरूप का ध्यान, उनकी आज्ञा का पालन और सुख-दुखों की प्राप्ति के साधनों में एवं सुख-दुखों की प्राप्ति में उन परमात्मा की कृपा का पद-पद पर अनुभव करने का नाम शरण है। और उनकी शरण होने से ही उनकी कृपा का रहस्य समझ में आ सकता है।
(3) प्र० ईश्वर के दर्शन और प्राप्ति का सहज उपाय क्या है
(4) उ०-अनन्य-भक्ति ही सहज उपाय है। भगवान् ने कहा है-
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवं विधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।
(गीता 11। 54)
‘हे श्रेष्ठ तपवाले अर्जुन ! अनन्य-भक्ति के द्वारा तो मैं इस
प्रकार प्रत्यक्ष देखा जा सकता हूँ, तत्त्व से जाना जा सकता हूँ तथा
एकीभाव से प्राप्त भी किया जा सकता हूं।’
अनन्य-भक्ति का स्वरूप यह है-
अनन्य-भक्ति का स्वरूप यह है-
मत्कर्मकृन्मत्परमो मभ्दत्तः सग्ङ्वर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
(गीता 11। 55)
‘हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे लिये ही कर्म करता
है, मेरे
परायण है, मेरा भक्त है, आसक्ति से रहित है और सम्पूर्ण प्राणियों में
वैरभाव से रहित है, वह (अनन्य भक्तिवाला पुरुष) मुझको (ही)
प्राप्त
होता है।’
सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति तो ज्ञानयोग द्वारा भी हो सकती है। परन्तु सगुण रूप के साक्षात् दर्शन वस्तुतः एक ही है। परन्तु व्याख्या करते समय शरणकी व्य़ाख्या में अनन्य-भक्ति का और अनन्य-भक्ति की व्याख्या में अनन्य-शरण का वर्णन हुआ करता है। जैसे उपर्युक्त श्लोक के ‘मत्परमः’ शब्द से भगवत्-शऱण का कथन किया गया है, वैसे ही गीता अध्याय 9 के 34 वें श्लोक में शरण के अन्तर्गत अनन्य-भक्ति का कथन आया है । गीता अध्याय 9 के 32 वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन से कहा-स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि वाले (अन्त्यज) भी मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं-
सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति तो ज्ञानयोग द्वारा भी हो सकती है। परन्तु सगुण रूप के साक्षात् दर्शन वस्तुतः एक ही है। परन्तु व्याख्या करते समय शरणकी व्य़ाख्या में अनन्य-भक्ति का और अनन्य-भक्ति की व्याख्या में अनन्य-शरण का वर्णन हुआ करता है। जैसे उपर्युक्त श्लोक के ‘मत्परमः’ शब्द से भगवत्-शऱण का कथन किया गया है, वैसे ही गीता अध्याय 9 के 34 वें श्लोक में शरण के अन्तर्गत अनन्य-भक्ति का कथन आया है । गीता अध्याय 9 के 32 वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन से कहा-स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि वाले (अन्त्यज) भी मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त हो जाते हैं-
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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